बचपन की याद आए तो मुझे कभी ये नहीं यकीन था कि मैं कभी रसोई में इतने घंटे गुजारूंगी, लेकिन नियति सब पहले से ही तय रखती है। कानपुर की तंग गलियों में मैंने खूब घूमा और खूब खाया भी,, स्ट्रीट फ़ूड मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा है.. झटपट बनकर तैयार लज़ीज़ खाना…. खाओ तो मज़ा ही आ जाए।
लेकिन एकबार 2-3 दिन की छुट्टी पर मैं अपनी नानी के यहाँ गयी, वहाँ मैंने उनको खाना बनाते देखा। वो बहुत अलग अनुभव था। नानी को मैंने बहुत कम मसालों, बहुत कम तेल में खाना बनाते देखा। मेरे हज़ार सवाल थे, लेकिन मैंने खाना चखने तक का इंतज़ार किया। खाने के जो स्वाद की अनुभूति थी वो बहुत अलग थी, फिर मैंने उनसे पूछा कि आप कैसे इतने कम तेल/मसालों का प्रयोग करके खाना स्वाददार बना लेती हैं। नानी ने कहा कि बेटा खाना दिल से बनाया जाता है, खाने को आत्मा से जोड़कर बनाओ। जो भी बनाओ उसमें एक खोज की तरह प्रयास रखो। खाना अच्छा बनेगा।
उनके जवाब ने मुझे मेरा रास्ता दिखा दिया। यक़ीन से परे बात है लेकिन मैंने ख़ुद को खाने में खोया हुआ पाया है, मेरे मम्मी को कभी यक़ीन नहीं था कि एकदिन मैं खाने में इस क़दर खो जाऊँगी कि वो मुझसे अपने सवालों के उत्तर जानेंगी।
मैंने किसी कॉलेज से खाना बनाना नहीं सीखा,, मैंने भारत के हर शहर, हर गाँव से खाने को जीना सीखा है…